|
कुछ अन्य सूक्त २३०
1 ॠ. IX. 75
१ अभि प्रियाणि पवते चनोहितो नमानि यहो अधि येषु वर्धते । आ सूर्यस्य बृहतो बृहन्नधि रथ विश्वञ्चमरुहद्विचक्षण: ।।
(चन:-हित:) आनन्दमें स्थित वह सोम (प्रियाणि नामानि) प्रिय नामोंकी ओर (अभि पवते) प्रवाहित होता है, (येषु) जिन नामोंमें (यह्व: अधि वर्धते) वह शक्तिशाली देव बढ़ता हैं । (बृहन्) विशाल और (विचक्षण:) बुद्धिमान् वह (बृहत: सूर्यस्य) विशाल सूर्यके (रथं) रथपर, (विश्वञ्चम् [ रथम् ] ) विश्वव्यापी गतिके रथपर (अधि आ अरुहत्) आरोहण करता है । २ ऋतस्थ जिह्वा पवते मधु प्रियं वक्ता पतिर्धियो अस्या अदाभ्य: । दधाति पुत्र: पित्रोरपीच्यं नाम तृतीयमधि रोचने दिव: ।।
वह सोम (पवते) प्रवाहित होता है जो (ऋतस्य जिह्वा) सत्यकी जिह्वा हे, (प्रियं मधु) आनन्दमय मधु2 है एवं (अस्या: धिय:) इस विचारका (वक्ता पति:) वक्ता और अधिपति है तथा (अदाभ्यः) अजेय है । (पुत्र:) वह पुत्र (दिव: रोचने) द्यौके ज्योतिर्मय लोकमें (पित्रो:) माता-पिता3के (तृतीयम् अपीच्यं नाम) तीसरे गुह्य नामको (अधि दधाति) प्रतिष्ठित करता है । __________ ।. सोमदेवके इन दो सूक्तों (ऋ. 9.75 और 9.42) का यथासंभव अक्षरश: अनुवाद किया गया है ताकि वेदके मौलिक प्रतीकवादको, उसके आध्यात्मिक अर्थोंमें उसका अनुवाद किये बिना, दर्शाया जा सके । 2. सोमकी मधर मदिरा । 3. द्यौ और पृथिवी । तीन द्यलोक और तीन पृथिवियां है और शिखर पर है द्यौ का त्रिविध ज्योतिर्मय लोक, जिसे स्वर् कहा गया है । उसके निम्न स्तरमें उसका यूं वर्णन किया गया गया है किए वह उषामें विद्यमान त्रिविध पृष्ठ या त्रिवृत् स्तर है । वह ''विशाल सूर्य'' का लोक है और उसे अपने आपमें ''सत्यम्, ॠतम्, बृहत्"के रूपमें वर्णित किया गया है । २३३ ३ अव द्युतानः कलशाँ अचिक्रदन्नृभिर्येमानः कोश आ हिरण्यये । अमीमृतस्य दोहना अनूषताऽधि त्रिपृष्ठ उवसो वि राजति ।।
(द्युतान:) प्रकाशके रूपमें प्रस्फुटित होता हुआ वह (नृभि: आयेमान:) मनुष्योंके द्वारा ले जाया जाता हुआ (कलशान्) [ देहरूप ] घटोंमें और (हिरण्यये कोशे) सुवर्गमय कोशमें (अव अचिक्रदत्) शब्द करता हुआ पड़ता है । (ईम्) उसीमें (ऋतस्य दोहना: अभि अनूषत) सत्यके दोहे गए रसं उषाके रूपमें प्रस्फुटित होते हैं1 । (उषस: त्रिपृष्ठ: अभि) उषाकी त्रिविध पीठपर वह (वि राजति) विशाल रूपमें प्रदीप्त होता है । ४ अद्रिभि: सुतो मतिभिश्चनोहित: प्ररोचयन् रोदसी मातरा शुचि: । रोमाण्यव्या समया वि धावति मधोर्धारा पिन्यमाना दिवेदिवे ।।
(अद्रिभि: सुत:) पत्थरोंसे निष्पीड़ित किया हुआ, (मतिभि: चन:-हित:) विचारोंसे आनन्दमें निहित किया हुआ, (शुचि:) निर्मल, (मातरा रोदसी) दोनों माताओं-द्यौ और पृथिवीको (प्ररोचयन्) देदीप्यमान करता हुआ वह सोम (अव्या रोमाणि समया) भेड़ों2के समस्त केशोंमेंसे होता हुआ (वि धावति) समरूपसे प्रवाहित होता है । (मधो: धारा) उसकी मधु-धारा (दिवे-दिवे) दिन-प्रतिदिन (पिन्वमाना) बढ़ती जाती है । ५ परि सोम प्र धन्वां स्वस्तये नृभि: पुनानो अभि वासयाशिरम् । थे ते मदा आहनसो विहायसस्तेभिरिन्द्रं चोदय दातवे मधम् ।।
(सोम) हे सोम ! (स्वस्तये) हमारे सुख-आनन्दके लिए (परि प्र-धन्व) सर्वत्र तीव्र गतिसे संचार कर । (नृभि: पुनान:) मनुष्योंसे शुद्ध- पवित्र किया हुआ तू अपनेको (आशिरं) रस-मिश्रणोंसे (अभि वासय) आच्छादित3 कर । (ये ते मदा:) तेरे जो हर्षोल्लास (आहनस:) आघात __________ ।. अथवा ''सत्यके दोहनेवाले उसके प्रति उच्च स्वरसे स्तोत्रगान करते हैं ।" 2. छलनी, जिसमेंसे सोमको शुद्ध किया जाता है, भेड़की ऊनसे बनी होती है । इन्द्र है भेड़ा (मेष), इसलिए भेड़का अर्थ अवश्य ही इन्द्रकी शक्ति है, बहुत संभवत: दिव्यता-प्राप्त इन्द्रिय-मन, इन्द्रियम् । 3. सोमको पानी, दूध तथा अन्य द्रव्योंके साथ मिलाया जाता था; यह कहा गया है कि सोम अपने-आपको जल-धाराओं और 'गौओं' अर्थात् उघाख्यीउषारुपी चमकीली गौके रसों या दीप्तियोंके परिधानसे आच्छादित करता है । २३४
रहस्यमय मदिराका देव
कर रहे हैं और (विहायरा:) विशाल रूपसे विस्तृत हैं (तेभि:) उनसे तू (इन्द्रमू) इन्द्रको (मघम् दातवे) प्रचुर-ऐश्वर्यका दान करनेके लिए (चोदय) प्रेरित कर । २३५
II
ऋ. IX. 42
१ जनयन् रोचना दिवो जनयन्नप्सू सूर्यम् वासानो गा अपो हरि: ।।
(दिव: रोचना जनयन्) द्युलोकके ज्योतिर्मय लोकों1को जन्म देता हुआ, (अप्सु सूयँ जनयन्) जलों2में सूर्य को जन्म देता हुआ (हरि:) देदीप्यमान देव [ सोम ] (अप: गा:3 वसान:) अपने-आपको जलों और रश्मियोंके एरिधानसे आवृत करता है । २ एष प्रत्नेन मन्मना देवो देवेभ्यस्परि । धारया पवते सुत: ।।
(देवेभ्यः परि एषः देव:) देवोंको घेरे हुए वह देव (प्रत्नेन मन्मना) सनातन विचारके द्वारा (धारया सुत:) धारारूपमें निचोड़कर निकाला हुआ (पवते) प्रवाहित होता है । ३ वावृधानाय तूर्वये पयन्ते वाजसातये । सोमा: सहस्रपाजस: ।।
(सहस्रपाजस:) सहस्रों बलोंसे युक्त (सोमा:) सोमरस उस व्यक्तिके लिए (पवन्ते) प्रवाहित होते हैं जो (ववृधानाय) बढ़ रहा हैं और (तूर्वये) द्रुत गतिसे प्रगति कर रहा है4 ताकि वह (वाजसातये) प्रचुर बल व ऐश्वर्य जीत सके । _________ ।. स्वर्के तीन लोकों । 2. अग्नि, सूर्य और स्वयं सोमके भी विषयमें कहा गया हैं कि वे जलोंमें या सात नदियोंमें पाए जाते हैं । 3. गा:--इसके दो अर्थ हैं, गौएँ और रश्मियाँ । 4. ववृथानाय तूर्वये--सब बाधाओंमेंसे होते हुए मार्गपर बढ़ने और प्रगति करनेके लिए । यज्ञको मनुष्यका विकास और एक यात्रा-इन दोनों रूपकोंके द्वारा वर्णित किया गया है । २३६
रहस्यमय मदिराका देव
४
दुहानः प्रत्नमित्पय: पवित्रे परि षिच्यते । ॠदन्देवाँ अजीजनत् ।।
(दुहान:) दोहा गया (प्रत्नम् इत् पय:) यह सनातन अन्नरस (पवित्रे) शुद्ध करनेवाली छाननीमें (परि सिच्चते) डाला जाता है और (क्रन्दन्) जोरसे शब्द करता हुआ वह (देवान् अजीजनत्) देवोंको जन्म देता है । ५ अभि विश्वानि वार्याऽभि देवाँ ऋतावृधः । सोम: पुनानो अर्षति ।।
(सोम:) सोम (पुनान:) अपने-आपको पवित्र करता हुआ (विश्वानि वार्या अभि) सब वरणीय वरोंकी ओर तथा (देवान् अभि) उन देवोंकी ओर (अर्षति) यात्रा करता हैं जो (ऋतावृध:) सत्यको बढ़ाते हैं । ६ गोमन्न: सोम वीरवदश्वावद्वाजवत्सुतः । पवस्व बृहतीरिषः ।।
(सोम) हे सोम, (सुत:) निष्पीड़ित होकर तू (गोमत् वीरवत् अश्ववत् वाजवत्) गौओं, वीरों और अश्वोंसे युक्त तथा प्रचुरतासे सम्पन्न ऐश्वर्य (न: पवस्व) हमपर प्रवाहित कर, (बृहती इषः)1 विशाल प्रेरणाओंको [ पवस्य ] प्रवाहित कर । __________ ।. कर्मकाण्डीय भाष्यकारके अनुसार 'बहती: इषः'का अर्थ है ''विपुल अन्न'' । क्योंकि यहाँ उसकी सामल्य व्याखयाके अनुसार 'अन्न' अर्थवाले दो शब्द हैं-''इष'' और ''वाज'', अतः यहाँ यह 'वाज' शब्दका एक और अर्थ करके मंत्रकी इस प्रकार व्याख्या करता है, ''हमें एक ऐसा धन दों जिसके साथ गौएँ, मनुष्य, घोड़े और युद्ध हों, और साथ हीं हमें प्रचुर अन्न भी दो ।'' २३७
|